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Saturday, 20 May 2017

ज्योतिर्विद्या

1.3 मङ्गलाचरणम् ।
प्राचीनकाल में लोगों की भलाई के लिए ग्रन्थों की रचना की जाती थी। पाञ्चवीं शताब्दीं में वराहमिहिरचार्य ने लोगों की भलाई के लिए तीनों कालों का ज्ञान देने वालें ज्योतिषशास्त्र- होराशास्त्र की रचना की। होराशास्त्र के प्रारम्भ में विना बाधा के कार्यपूर्णकरने हेतु मङ्गलाचरणं से शुरु करते हैं। इस पाठ में मङ्गलाचारण की विशेषाताओं का वर्णन किया गया है। मङ्गलाचरण तीन प्रकार की है । जैसे कहा गया है- आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि तन्मुखम् । दिए गए प्रसङ्ग में  लेखक ने इष्टदेवता  सविता का अशीष लेते हुए मङ्गलाचारण किया है। कहा गया है-
मूर्तित्वे परिकल्पितः शशभृतो वर्त्मापुनर्जन्मनाम्।
त्मत्यत्मविदां क्रतुश्च यजतां भर्तामरज्योतिषाम्
लोकानां प्रलयोदयस्थितिविभुश्चानेकधा यः श्रुतौ।
वाचं नः स दधात्वनेककिरणस्त्रैलोक्यदीपो रविः।।1 ।।
सूर्य ही मोक्षेचछुओं का मार्ग होता हैं। मोक्षेचछु शब्द से किन लोगों को जाना जाता है। वो जिनका पुनर्जन्म न हो, वें अपुनर्जन्मि अर्थात् मुक्षेच्छु कहलाते हैं। उन लोगों के लिए मार्ग है।  सूर्य मण्डल को भेदकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस कारणसे सूर्य मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। दो ही व्यक्ति सूर्यमण्डल  का भेद कर सकते हैं।  एक परिव्राट्, दूसरा लडते लडते युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त होने वाला। ऐसा कहा गया है-
द्वावेव[1] पुरुषौ लेके सूर्यमण्डलभेदिनौ। परिव्राट् योगयुक्ताश्च रणे चाभिमुखो हतः।
आत्मेत्यात्मविद् शब्द का अर्थ आत्मज्ञानियों की आत्मा है। यजतां क्रतुः शब्द का अर्थ, यज्ञ रवि ही है।
ग्रहनक्षत्रों को ज्योतियाँ नाम से पुकारते हैं। देवताओं को अमर  कहते हैं। अमरज्योतिषां भर्ता इस शब्द का अर्थ ग्रहनक्षत्रों और देवताओं  का स्वामी रवि होता है। तीनो लोकों का प्रलय, सृष्टि और स्थिति, का कारक रवि होता है।   अनेकधा श्रुतौ शब्द का अर्थ है, रवि को वेदों मे अनेक नामों से पुकारा गया है।
स्मरणीय तथ्य इस प्रकार हैं-
*     सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर पढने पर चन्द्रमा का मूर्तरूप प्राप्त होता है।
*     सूर्य ही मोक्ष चाहने वालों के लिए मोक्षप्राप्त करने का मार्ग है।
शब्दब्रह्मात्करवि हमें काल के द्वारा नष्ट न होने वाली, सत्य, मधुर, वाणीं प्रदान करें। सूर्य में अनेककिरणें हैं। जैसे शीतकिरण, गरमकिरण, शीतोष्णकिरण।




पदच्छेदः = मूर्तित्वे परिकल्पितः शशभृतो वर्त्मा अपुनः जन्मनाम् आत्मा इति आत्म विदां क्रतु च यजतां भर्ता अमरज्योतिषाम् । लोकानां प्रलय-उद्भव-स्थिति विभु च अनेकधा यः श्रुतौ वाचं नः स ददात अनेक किरणः त्रैलोक्यदीपो रविः।
अन्वयः = शशभृतो मूर्तित्वे परिकल्पितः,अपुर्जन्मानाम् वर्त्म, आत्मविदाम् आत्मा इति, अमर ज्योतिषा यजतां क्रतुश्च भर्ता, लोकानां प्रलयोदयस्थिति अनेकधा विभुः च, रवि अनेककिरणः(वशात्) त्रैलोक्यदीपो यः श्रुतौ , स नः (वक्तुं पारयेत) वाचं दधातु।
अन्वयार्थः - शशभृतो=  चन्द्रः, मूर्तित्वे परिकल्पितः= मूर्तिरूपेण परिकल्पितः, अपुर्जन्मानाम्=न पुनर्जन्म विद्यते तेषाम्, वर्त्मा = मार्गः, आत्मविदाम् = आत्मज्ञानपरायणाम्, आत्मा = आत्मा, अमरज्योतिषा =  देवाः ज्योतिष् ग्रहनक्षत्रादीनि तेषां भर्ता प्रभुः; देवाः ग्रहानक्षत्रायाः दिव्याः तेषाम् अर्थात् देवतानां प्रभुः, यजतांक्रतुश्च = यजमानानां स एव क्रतुः, भर्ता = पतिः, लोकानां =  त्रिलोकानां, प्रलयोदयस्थिति =  सृष्टिस्थितिप्रलयकारणकर्ता, अनेकधा = बहुधा, विभुः =  विष्णुः, यः श्रुतौ = वेदे रविः, वाचं =  नः(वक्तुं पारयेत) स रविः =  सः सूर्यः, अनेककिरणः(वशात्)  = न एक किरणवान्,  त्रैलोक्यदीपो = भूः भुवः सुवः इति लोकत्रयाणां दीपः भवति।
भावः =  शशभृतो मूर्तित्वे परिकल्पितः, अपुर्जन्मानाम् वर्त्मा, आत्मविदाम् आत्मा इति, अमरज्योतिषा यजतां क्रतुश्च भर्ता, लोकानां प्रलयोदयस्थितयः अनेकधा विभुः च, रविः अनेककिरणः(वशात्) त्रैलोक्यदीपो यः श्रुतौ , स नः (वक्तुं पारयेत) वाचं दधातु इति भावः।
प्रश्नोत्तर-
1.     ज्योतिषशास्त्र का अधिकारी कौन हैं?
2.     ज्योतिषशास्त्र का वेदाङ्गत्व क्यों हुआ हैं ?
3.     ज्योतिषशास्त्र का विषय क्या है?
4.     ज्योतिषशास्त्र का प्रयोजन क्या हैं?
5.   ज्यौतिश्शास्त्र के अठारह प्रवर्तक कौन हैं ?
6.     चौदह विद्यायें  क्या हैं?
7.     बृहज्जातकग्रन्थ की कितनी टीकाए प्रसिद्ध हैं?
8.     वराहमि हिराचार्य ने कौन कौनसे ग्रन्थ लिखें हैं?
9.     ज्योतिषशास्त्र का प्रधान देव कौन हैं?
10. चन्द्रमा को मूर्तिरूप किसने प्रदान किया हैं?
 


1.4 ग्रन्थ की विशेषताऐं।
प्राचीनकाल में लोगों की भलाई हेतु ग्रन्थ लिखे जाते थे। यह ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ हैं। इस ग्रन्थ में वराहमिहिराचार्य लिखते हैं- अहं बहुभिः पटुबुद्धिभिः पटुधियां होराफलज्ञप्तये, बहुशः शास्त्रेषु दृष्टेषु सत्स्वपि होरातन्त्रमहार्णवप्रतरणे भग्नोद्यमाना पटुधियां स्वल्पं वृत्तविचित्रम् अर्थबहुलं  होराशास्त्रप्लवं प्रारभेअर्थात् होराशास्त्र  जानने के लिए अनेक विद्वानों के साथ मिलकर,मैं ने कई शास्त्रों का अध्ययन किया फिर भी समुद्र के समान विशाल इस होराशास्त्र को जानने  में मैं असमर्थ हूँ। मैं शास्त्ररूपी नाव द्वारा, सागर को पार करने का प्रयास, कर रहा हूं।
भूयोभिः पटुबुद्धिभिः पटुधियां होराफलज्ञप्तयेशब्दन्यायसमन्वितेषु बहुशः शास्त्रेषु दृष्टेष्वपि।
होरातन्त्रमहार्णवप्रतरणे भग्नद्यमानामहम्स्वल्पं वृत्तविचित्रमर्थबहुलं शास्त्रप्लवं प्रारभे 2।।
-(शार्दूलविक्रीडिता)
पदच्छेदः-भूयोभिः पटुबुद्धिभिः पटुधियां होरा फलज्ञप्तये शब्दन्यायसमन्वितेषु बहुशः शास्त्रेषु दृष्टेष अपि होरा-तन्त्र-महा- अर्णव-प्रतरणे भग्न उद्यमानाम् अहं स्वल्पं वृत्त विचित्रम् अर्थ बहुलं  शास्त्र प्लवं प्रारभे।
अन्वयः = (अहं) भूयोभिः पटुबुद्धिभिः पटुधियां होराफलज्ञप्तये, बहुशः शब्दन्यायसमन्वितेषु शास्त्रेषु दृष्टेषु सत्स्वपि अपि होरातन्त्र महार्णवप्रतरणे भग्नोद्यमाना पटुधियां स्वल्पं वृत्तविचित्रम् अर्थबहुलं होराशास्त्रप्लवं प्रारभे
अन्वयार्थः - भूयोभिः = बहुभिः, पटुबुद्धिभिः = पटुत्वं गुणसमग्रता तद्युक्त बुद्धिभिः, शब्दन्यायसमन्वितेषु =  व्याकरणन्यामीमांसादिषु शास्त्रेषु, बहुशः = प्रायशः, शास्त्रेषु दृष्टेष=शास्त्रेषु परामृष्टे, अपि होराफलज्ञप्तये = होराफलम् अधिगन्तु, पटुधियां = धीः पटुत्वं , भग्नोद्यमाना= होरफलावगमनकार्ये भग्नप्रवृत्तीनां, होरातन्त्रमहार्णवप्रतरणे = होराशास्त्रस्य माहसागरप्रतरणे, स्वल्पं = लघुकायैः, वृत्तविचित्रम् = अनेकविचित्रवृत्तात्मकम्, अर्थबहुलम् = अर्थ बाहुल्यम्,  शास्त्रप्लवं = शास्त्रस्य प्लवत्वरूपम्, अहम् = आदित्यदासः, वराहमिहिराचार्यः, प्रारभे = प्रारम्भं करोमि
भावः = भूयोभिः पटु बुद्धिभिः शब्दन्यायसमन्वितेषु बहुशः शास्त्रेषु दृष्टेष अपि होराफलज्ञप्तये पटुधियां भग्नोद्यमानां होरातन्त्रमहार्णवप्रतरणे स्वल्पं वृत्तविचित्रम् अर्थबहुलं शास्त्रप्लवम् अहं प्रारभे इति भावः



1.4.1  लेखक का परिचय।
इस ग्रन्थ के लेखक श्री वराहमिहिराचार्य हैं। इसी ग्रन्थ में अठठाईसवें अध्याय में लेखक ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है। -
आदित्यदासतनयः तदवाप्तबोधः कापित्थके सवितृलब्धवरप्रसादः।
आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्यसम्यग्  होरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।।
श्री आदित्यदास ब्राह्मण के पुत्र वराहमिहिर ने कपित्थ नामक गांव में स्थित सूर्यमन्दिर में भगवान् आदित्य की आराधना पूर्वक आशीर्वाद प्राप्त कर के अपने ही पिता जी से ज्यौतिषशास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर मनोहर होराशास्त्र की रचना की हैं।
इनकी कृतियां हैं-  पञ्चसिद्धान्तिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातकम्, लघुजातकम्, विवाहपटलं, योगयात्रा, लग्नवाराही इत्यादी ग्रन्थ हैं।
आचार्य वराहमिहिर 427 मितशकवर्ष में हुए थे।,  उन् का शकगत 407 मे जन्म हुआ था। 509 मितशकवर्ष मे  निधन हुआ। उन का महत्वपूर्ण योगदान ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कन्धों मे हैं। इनकी लिखी हई कृतियों में भट्टोत्पल की महीधर की,  गेविन्दकी, और महादेव की व्याख्याऐं प्रसिद्ध हैं।
प्रश्नोत्तर-
11. ग्रन्थ की विशेषताओं का वर्णन कीजिए?
12. वराहमिहिराचार्य किस प्रदेश के थे?
13. वराहमिहिरचार्य के गुरु कौन थे?
14. वराहमिहिराचार्ये ने कौन कौन से ग्रन्थों की रचना की हैं?

1.5 होराशब्द की उत्पत्ति-
होरा शब्द का अर्थ क्या है? उत्पत्ति कैसे हुई हैं? जिज्ञासा के लिए आगे दिया गया है। अहश्च रात्रिश्च इन दो शब्दों से अहोरात्रा समासपद बनाया गया। आचार्यों के अभिप्राय अनुसार अहोरात्रशब्द के विकल्प से होराशब्द की उत्पत्ती हुई। अहोरात्र शब्द का पूर्ववर्ण अपरवर्ण त्र इन दोनों के लुप्त होने से होरा शब्द बना है।
 “होरत्यहोरात्रविकल्पमकेवाञ्छन्ति पूर्वपरवर्णलोपात् ।
कर्मजितं पूर्वभवे सददियत् तस्य पङ्क्तिं समभिव्यनक्ति ।।3।।
पदच्छेदः = होरा इति अहोरात्रविकल्पमेके वाञ्छन्ति पूर्वापरवर्णलोपात् कर्माजितं पूर्वभवे सदादि यत् तस्य पङ्क्तिं समभिव्यनक्ति ।(इन्द्रवज्रा)
अन्वयः = पूर्वापरवर्णलोपात्  होरेत्यहोरात्र विकल्पमेके वाञ्छन्ति पूर्व भवेदकर्मार्जितं प्रगजन्मनि  यत् सदादि  तस्य पंक्तिं समभिव्यनक्ति।
अन्वयार्थः =  पूर्वापरवर्णलोपात् = पूर्ववर्णः एवम् अपरवर्णः, होरेत्यहोरात्र=होरा इति अहोरात्र, विकल्पमेके = विशिष्टं कल्पना एके आचार्यः, वाञ्छन्ति = इच्छन्ति, पूर्व = प्राग्, भवे = जन्मे, कर्मार्जितं = स्वकर्मोचितम्, प्रग्जन्मनि = पूर्वजन्मनि,  यत् = यत्, सदादि = सत् आदि,  तस्य = जातकस्य कर्मस्य, पंक्तिं = परिपाकं, समभिव्यनक्ति = सम्यग् अभिव्यनक्ति।
भावः =  पूर्वापरवर्णलोपात्  होरेत्यहोरात्रविकल्पमेके वाञ्छन्ति पूर्वभवेदकर्मार्जितं प्रगजन्मनि  यत् सदादि  तस्य पंक्तिं समभिव्यनक्ति।
बोधप्रश्नाः
15. होराशास्त्र की नौका क्या है?
16. होराशब्द की उत्पत्ति कहां से हुई हैं?
 


ग्रन्थ का मूलपाठ
मूर्तित्वे परिकल्पितः शशभृतो वर्त्मापुनर्जन्मनाम्। आत्मत्यत्मविदां क्रतुश्च यजतां भर्तामरज्योतिषाम्
लोकानां प्रलयोदयस्थितिविभुश्चानेकधा यः श्रुतौ। वाचं नः स दधातु नैककिरणस्त्रैलोक्यदीपो रविः।।1।।
भूयोभिः पटुबुद्धिभिः पटुधियां होराफलज्ञप्तये। शब्दन्यायसमन्वितेषु बहुशः शास्त्रेषु दृष्टेष्वपि।
होरातन्त्रमहार्णवप्रतरणे भग्नद्यमानामहम्। स्वल्पं वृत्तविचित्रमर्थबहुलं शास्त्रप्लवं प्रारभे । ।2।।
होरत्यहोरात्रविकल्पमके वाञ्छन्ति पूर्वपरवर्णलोपात् ।
कर्मजितं पूर्वभवे सददि। यत् तस्य पङ्क्तिं समभिव्यनक्ति ।।3।।
1.6        सारांश
सूर्य के द्वारा चन्द्रमा की मूर्ति के रूप मे परिकल्पना की गयी है। जो मोक्ष पाना चाहते है, सूर्य उन के लिए मार्ग है। आत्मज्ञानियों की आत्मा है। ग्रह नक्षत्रों के स्वामी सूर्य है। यज्ञ यज्ञादि कर्म के लिए यज्ञ स्वरूप, तीनों लोकों की प्रलयोदयस्थिति का कारण सूर्य है। रवि अनेक किरणों  के कारण तीनों लोकों का दीपक होता है। वेद में सूर्य की  अनेक प्रकार से स्तुति की गयी है। ऐसा सूर्य मेरी वाणी को शक्ति प्रदान करें।
1.7 शब्दावली
शशभृतो  = खरगोश्। वर्त्मा = मार्ग। अपुनर्जन्मनाम =  जिसका पुनर्जन्म न हो। त्मत्यत्मविदाम् =  आत्मज्ञानियों की आत्मा। भर्तामरज्योतिषाम् = ग्रहनक्षत्रों के स्वामी। लोकानां = तीनों लोकों का। प्रलयः = विनाश।  उदयः = उत्पत्ति। स्थितिः = पालन। विभुः = ईश्वर। अनेकधा  =  विविधप्रकार। यः श्रुतौ=जिसको वेद में। वाचं  = वाग् वाणी । ददातु = प्रयच्छतु। नैककिरणः = अनेक किरण। त्रैलोक्यदीपः =  तीनों लोकों का दीपक। रविः = सूरज्। भूयोभिः = अनेक प्रकार। पटुबुद्धिभिः= विद्वान लोगों से। पटुधियां = सोच विचार से। होराफलज्ञप्तये = होराशास्त्र के फलज्ञान के लिए। शब्दन्यायसमन्वितेषु  = व्याकरण न्याय शास्त्रादि अध्ययनात् परं ज्यौतिषम् अध्येतव्यमिति भावः। बहुशः = प्राय।  शास्त्रेषु = होरा शास्त्र मे। दृष्टेष्वपि = देखकरभग्नद्यमानाम् = भग्न उत्साही। सागर तुल्य विस्तार रूपी महाशास्त्र तरण मे असफलता  हेतु। स्वल्पं = लघुप्रमाण (होराशास्त्र मे 25 अध्याय 328 श्लेक होतें हैं।)वृत्तविचित्रमर्थबहुलम् = नानाविध वृत्तों के द्वारा अनेक अर्थ सहित श्लोकों मे।शास्त्रप्लवं प्रारभे = शास्त्र की नौका। होरेति = होरा + इति होरात्रम् = अहश्च रात्रिश्च। विकल्पम् = विशिष्ट कल्पवाञ्छन्ति =  इच्छा करना। पूर्वभवे =  पूर्व जन्म मेसददि = सत् आदि।पङ्क्तिं = कतार। समभिव्यनक्ति = सम्यग् अभि-व्यनक्ति।
1.8 सन्दर्भ-
होराशास्त्रम्/बृहज्जातकम्  की रचना आचार्यवराहमिहिर ने की है।  भट्टोत्पल टीकोपेता ज्योतिषप्रकाशन चौक, चौखम्बा संस्कृतसंस्थान वाराणसी।
होराशास्त्रम्/बृहज्जातकम् - श्री सनातनभारत भारती पाठशाला 716,11th main, iind cross,E Block, JP Nagar,Mysore570008 Karnataka.
होराशास्त्रम्/बृहज्जातकम्-सान्वयरुद्रविवरणी टीका –चौखम्बासुरभारती प्रकाशन वाराणसी।
1.9 सहायकग्रन्थ-
1.     बृहत्पराशरहोराशास्त्रम्-पराशरविरचितम् चौखम्बासुरभारती प्रकाशन वाराणसी।
2.     होराकृष्णीयम्- चौखम्बासुरभारती प्रकाशन वारणसी।
3.     सारावली –कल्याणवर्माविरचिता कान्तिमती हिन्दी व्याख्यासहिता डा.मुरलीधरचतुर्वेदी-नरेन्द्रप्रकाशजैन,मोतीलाल बनारसीदास, बंगलोरोड्, दिल्ली 110-007
4.     सारावली –कल्याणवर्माविरचिता कान्तिमती हिन्दी व्याख्यासहिता डा.मुरलीधरचतुर्वेदी-नरेन्द्रप्रकाशजैन,मोतीलाल बनारसीदास, 120 रोयपेट् रोड् मालापुर् 600-004
5.     सारावली-वे सुब्रह्मण्यशास्त्री मुम्बय्यां पाण्डुरङ्गःजावजी –निर्णयसागर मुद्रणालयैः मुद्रितः।
6.     सारावली –कल्याणवर्माविरचिता कान्तिमती हिन्दी व्याख्यासहिता डा.मुरलीधरचतुर्वेदी-नरेन्द्रप्रकाशजैन,मोतीलाल बनारसीदास, बंगलोरोड्, दिल्ली 110-007
7.     सारावली –कल्याणवर्माविरचिता कान्तिमती हिन्दी व्याख्यासहिता डा.मुरलीधरचतुर्वेदी-नरेन्द्रप्रकाशजैन,मोतीलाल बनारसीदास, 120 रोयपेट् रोड् मालापुर् 600-004
8.     सारावली-वे सुब्रह्मण्यशास्त्री मुम्बय्यां पाण्डुरङ्गःजावजी –निर्णयसागर मुद्रणालयैः मुद्रितः।
1.10 प्रश्नोत्तर-
1.   ज्योतिषशास्त्र का अधिकारी सामान्य व्यक्ति भी है।
2.   ज्योतिषशास्त्र का वेदाङ्गत्व – यज्ञ हेतु मुहूर्त  देता है, इसलिए ज्योतिषशास्त्र को वेदाङ्गत्व प्राप्त हुआ है।
वेदस्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ताः यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रयेण।
शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्यात् वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात्।।
3.     याजुषज्योतिष के अनुसार ञ्चसंवत्सरात्सरात्मि दिन-ऋतु-अयनमासादी कालगणना ही इस का विषय है। अथर्वज्योतिष में मुहूर्त का ज्ञान अर्थात् सूक्ष्मगणनप्रक्रियाविषय प्रारब्ध हुआ। ज्योतिषमहाशास्त्र का छह अङ्ग जातक-गोल-निमित्त-प्रश्न-मुहूर्त-गणित  है।
4.     ज्योतिषशास्त्र का प्रयोजन,  अन्यजन्मो में किये हुए कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाला  शुभाशुभ फल है। आयुः निर्धारण एवं लोकयात्रा परिज्ञान शास्त्र का महत्तरप्रयोजन होता है।
5.     ज्योतिष शास्त्र के अठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोत्रि पराशरः। काश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुराङ्गिराः।।
लोमशः पुलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोष्टादशश्चैते ज्योतिश्शास्त्रःप्रवर्तकाः।।
6.     चौदह विद्ययें  चार वेद, छह वेदाङग, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र, पुराण यही चौदह विद्यायें हैं ।
7.     बृहज्जातकग्रन्थ के टीकाऐं आगे दिये गये हैं। उत्पलभट्ट की विवृत्तिटीका, गोविन्दसोमयाजी  की रचना दशाध्यायी, श्रीरुद्र की रचना होराविवरणटीका, नौकाटीका, श्रीमत् शङ्कराचार्य प्रणीत जयमङ्गलाटीका,  चन्द्रिकाँ नामक व्याख्या, मिताक्षरी नामकी व्याख्या, पारमेश्वरी एक व्याख्या,  श्रीनिवासमहोदय से रचना की गयी अपूर्वार्थप्रकाशिका, आदी व्याख्यायें प्रसिद्ध हैं।
8.     वराहमिहिराचार्य ने निम्न ग्रन्थ लिखे  हैं - पञ्चसिद्धन्तिका, होराशास्त्रम्(बृहज्जातकम्), बृहत्संहिता, लघुजातकम्, विवाहपटलम्, योगयात्रा, दैवज्ञवल्लभा ।
9.     ज्योतिषशास्त्र के प्रमुखदेवता सूर्य है।
10. चन्द्रमा को मूर्तिरूप सूर्य ने प्रदान किया है।
11. अस्मिन् शास्त्रे शब्दन्यायव्यतिरेकेणापि  क्वचित्  क्वचिद् अर्थविशेषसूचनं ध्वन्यते। स्वल्पमिति सारसङ्ग्रहरूपत्वात् सुखध्येयमिति भावः। अस्मिन् ग्रन्थे लिखितानां विषयानाम् अर्थबहुल्यं भवति। अस्मिन् शास्त्रे स्वल्पैः पदैः बह्वर्थान् विवक्षयति । विचित्रैः वृत्तैः लिखिष्ये  इति ग्रन्थकर्तुः लिखति। अनेन स्वल्पशब्दविचित्रवृत्तवशात् होरतन्त्रप्रतरणे  सुकरं भवति।
12. वराहमिहिराचार्य अवन्तिका प्रदेश के थे।
13. वराहमिहिरचार्य के गुरु आदित्य थे।
14. वराहमिहिराचार्य ने  पञ्चसिद्धान्तिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातकम्, लघुजातकम्, बृहद्यात्रा, योगयात्रा आदी ग्रन्थों की रचना की हैं।
15. होराशास्त्र की नौका  बृहज्जातक है।
16. अहोरात्र शब्द का पूर्वापरवर्ण लुप्त  होकर होरा शब्द की उत्पत्ति हई है।
रचनात्मकप्रश्न
1.     ज्यौतिषशास्त्र के अन्य ग्रन्थों के नाम लिखिऐं ।
2.     होराशास्त्र की अन्य टीकाओं का संग्रहण  कीजिऐं।
3.     अन्य जौतिष ग्रन्थों मे विद्यमान मङ्गलाचरण से इस ग्रन्थ के मङ्गलाचरण की तुलना कीजिए।
4.     वराहमिहिर से सम्बन्धित विषयों का सङ्ग्रहण कीजिए ।
5.     आचार्यवराहमिहिराचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों का अध्ययन कीजिऐ।



[1]द्वाविमौ पुरुषौ लोके इति पाठान्तरम्।